भील
जनजाति राजस्थान की प्रमुख प्राचीन जनजाति है। जिस प्रकार उत्तरी राजस्थान
में राजपूतों के उदय से पहले मीणों के राज्य रहे, उसी प्रकार दक्षिणी
राजस्थान और हाड़ौती प्रदेश में भीलों के अनेक छोटे-छोटे राज्य रहे है।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में भील शब्द लगभग सभी बनवासी जातियों जैसे निषाद,
शबर आदि के लिए समानार्थी रूप से प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार भील संज्ञा
प्राचीन संस्कृति साहित्य में उस वर्ग विशेष के लिए प्रयुक्त की जाती थी जो
धनुष-बाण से शिकार करके अपना पेट-पालन करते थे यह देखा गया है कि इस
स्थिति को परवर्ती साहित्य में भी लगभग ज्यों का त्यों बरकरार रखा गया।
मेवाड़ बागड़ और गोवाड़ प्रदेश में चार विभिन्न जनजातियां मीणा, भील, डामोर
और गरासिया निवास करती है पर पत्रकार और लेखक इन चारों के लिए केवल भील
संज्ञा ही प्रयुक्त करते हैं। आज भी सामान्यतः लोगों की यही धारणा है कि
उपरोक्त समूचे प्रदेश में केवल भील जनजाति ही निवासी करती है।
विद्वानों के अनुसार भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ शब्द ‘बील’ से हुई है जिसका अर्थ है धनुष। धनुष-बाण भीलों का मुख्य शस्त्र था, अतएव ये लोग भील कहलाने लगे। एक दूसरे मत के अनुसार भील भारत की प्राचीनतम जनजाति है। इसकी गणना पुरातन काल में राजवंशों में की जाती थी। जो विहिल नाम से जाना जाता था। इस वंश का शासन पहाड़ी इलाकों में था। आज भी ये लोग मुख्यतः पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। इस संदर्भ में एक कहावत भी प्रचलित है कि संसार में केवल साढ़े तीन राजा ही प्रसिद्ध है इन्द्र राजा, राजा और भील राजा तथा आधे में बींद (दूल्हा राजा)। मेवाड़ की स्थापना के बाद से ही मेवाड़ के महाराणाओं को भील जनजातियों को निरंतर सहयोग मिलता रहा। महाराणा प्रताप इन्हीं लोगों के सहयोग से वर्षों तक मुगल फौजों से लोहा लेते रहे थे। यही कारण है कि उनकी सेवाओं के सम्मान-स्वरूप मेवाड़ के राज्य चिन्ह में एक ओर राजपूत और दूसरी ओर भील दर्शाया जाता था। आमेर के कछावा राजाओं की भांति मेवाड़ के महाराणा भी भीलों के हाथ के अंगूठे के रक्त से अपना राजतिलक करवाते रहे थे। भील जनजाति राजस्थान के सब जिलों में न्यूनाधिक रूप से पाई जाती है। पर राजस्थान के दक्षिणांचल में इनका भारी जमाव है।
भील जनजाति राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश गुजरात और महाराष्ट्र में भी पाई जाती है। राजपूतों के उदय से पहले राजस्थान की धरती पर निम्न क्षेत्रों में भीलों के राज्य रहे हैं।
डूंगरपुर
डूंगरपुर राज्य पर पहले डंगरिया मेर का अधिकार था जिसे चित्तौड़ के महाराजा रतन सिंह के पुत्र माहप ने धोखे से माकर उसका राज्य छीना, ऐसा कवि राजा श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनाद में लिखा है।
बांसवाड़ा
बांसवाड़ा राज्य पर पहले बांसिया भील का अधिपत्य था। डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह के द्वितीय पुत्र जगमल ने इस राज्य को जीता और अपने अधिकार में लिया।
कुशलगढ़
कुशलगढ़ पर कटारा गोत्रीय कुशला भील का अधिकार था। अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र में मिणाय ठिकाना भी पहले मांदलियां भीलों के अधिकार में था। जिनका बनाया किला आज भी मौजूद है और गढ़ मांदलिया के नाम से प्रसिद्ध है। ईडर गुजरात में सोढ़ा गोत्र के सावलिया भील का राज्य था, जिसे हराकर राठौड़ों ने वहां अपना राज्य स्थापित किया, मेवाड़ में स्थित जवास जगरगढ़ पर भी भीलों का शासन था। जिसे चॉपनेर के खींचा राजाओं ने जीता जगरगढ़ को जोगरराज भील ने बसया था। मेवाड़ और मलवे के बीच का भू-भाग आमद कहलाता है। इस क्षेत्र के दो बड़े कस्बो रामपुरा और भानपुरा पर रामा और भाना नामक
भीलों का अधिकार था, जिन्हें परास्त करके सिसोदिया शाखा के वंशधर चंद्रावतों ने अपना अधिकार जमाया।
कांठला प्रदेश
कांठला प्रदेश देवलिया प्रतापगढ़ पर पहले मीणों का राज्य था। संवतः 1617 में बीका सिसोदिया ने वहां के सरदार भाभरिया मेर को मारकर उसके राज्य पर अपना अधिकार किया था, भाभरिया मेर की पत्नी देउमीणी की चोटी आज भी प्रतापगढ़ के पहलों में मौजूद है, जिसकी हर साल नवरात्रि के अवसर पर धूमधाम से पूजा की जाती है। (वीर विनोद कविराजा श्यामलदास) इस संदर्भ में यहां यह जोड़ देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जयसमंद उदयपुर जिला से लेकर ठेठ प्रतापगढ़ चितौड़गढ़ जिला तक के क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी सदियों से स्वयं को मीणा कहते-कहलाते आ रहे हैं। ये लोग अपने सर नेम के लिए भी बहुधा मीणा या रावत शब्द प्रयुक्त करते हैं।
कोटा
कोटा पर शताब्दियों तक भीलों का शासन रहा। कोटा के पास आसलपुर की ध्वस्त नगरी तथा अकेलगढ़ का पुराना किला भीलों के ही थे। वहां के भील सरदार की उपाधि कोटिया थी। सन 1274 में बूंदी के तत्कालीन शासक समर सिंह के पुत्र जेतसिंह ने कोटिया भील को युद्ध में मार डाला और कोटा में हाड़ा वंश के शासन की जींव डाली। पुरानी परंपरा के अनुसार जेतसिंह ने कोटिया भील के नाम पर अपनी राजधानी का नाम कोटा रखा।
मनोहर थाना
झालावाड़ जिले के मनोहर थाना के आसपास के इलाके पर संवत् 1675 तक भील राजा चक्रसेन का राज्य था। कोटा के महाराव भीम सिंह ने राजा चक्रसेन को हराकर उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। कोटा राज्य का इतिहास (डॉ मथुरालाल शर्मा पृष्ठ संख्या 300) मीणा और भील जनजातियों में अनेक फिर्को या उपजातियां है। हर फिर्को अपनी जातिया के नाम के पहले एक खास विशेषण लगाकर अपना अलग अस्तित्व कायम रखे हुए हैं। जैसे पढि़यारमीना, पचवारा मीना, मालवीभील मांदलिया आदि-आदि।
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विद्वानों के अनुसार भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ शब्द ‘बील’ से हुई है जिसका अर्थ है धनुष। धनुष-बाण भीलों का मुख्य शस्त्र था, अतएव ये लोग भील कहलाने लगे। एक दूसरे मत के अनुसार भील भारत की प्राचीनतम जनजाति है। इसकी गणना पुरातन काल में राजवंशों में की जाती थी। जो विहिल नाम से जाना जाता था। इस वंश का शासन पहाड़ी इलाकों में था। आज भी ये लोग मुख्यतः पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। इस संदर्भ में एक कहावत भी प्रचलित है कि संसार में केवल साढ़े तीन राजा ही प्रसिद्ध है इन्द्र राजा, राजा और भील राजा तथा आधे में बींद (दूल्हा राजा)। मेवाड़ की स्थापना के बाद से ही मेवाड़ के महाराणाओं को भील जनजातियों को निरंतर सहयोग मिलता रहा। महाराणा प्रताप इन्हीं लोगों के सहयोग से वर्षों तक मुगल फौजों से लोहा लेते रहे थे। यही कारण है कि उनकी सेवाओं के सम्मान-स्वरूप मेवाड़ के राज्य चिन्ह में एक ओर राजपूत और दूसरी ओर भील दर्शाया जाता था। आमेर के कछावा राजाओं की भांति मेवाड़ के महाराणा भी भीलों के हाथ के अंगूठे के रक्त से अपना राजतिलक करवाते रहे थे। भील जनजाति राजस्थान के सब जिलों में न्यूनाधिक रूप से पाई जाती है। पर राजस्थान के दक्षिणांचल में इनका भारी जमाव है।
भील जनजाति राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश गुजरात और महाराष्ट्र में भी पाई जाती है। राजपूतों के उदय से पहले राजस्थान की धरती पर निम्न क्षेत्रों में भीलों के राज्य रहे हैं।
डूंगरपुर
डूंगरपुर राज्य पर पहले डंगरिया मेर का अधिकार था जिसे चित्तौड़ के महाराजा रतन सिंह के पुत्र माहप ने धोखे से माकर उसका राज्य छीना, ऐसा कवि राजा श्यामलदास ने अपने ग्रंथ वीर विनाद में लिखा है।
बांसवाड़ा
बांसवाड़ा राज्य पर पहले बांसिया भील का अधिपत्य था। डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह के द्वितीय पुत्र जगमल ने इस राज्य को जीता और अपने अधिकार में लिया।
कुशलगढ़
कुशलगढ़ पर कटारा गोत्रीय कुशला भील का अधिकार था। अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र में मिणाय ठिकाना भी पहले मांदलियां भीलों के अधिकार में था। जिनका बनाया किला आज भी मौजूद है और गढ़ मांदलिया के नाम से प्रसिद्ध है। ईडर गुजरात में सोढ़ा गोत्र के सावलिया भील का राज्य था, जिसे हराकर राठौड़ों ने वहां अपना राज्य स्थापित किया, मेवाड़ में स्थित जवास जगरगढ़ पर भी भीलों का शासन था। जिसे चॉपनेर के खींचा राजाओं ने जीता जगरगढ़ को जोगरराज भील ने बसया था। मेवाड़ और मलवे के बीच का भू-भाग आमद कहलाता है। इस क्षेत्र के दो बड़े कस्बो रामपुरा और भानपुरा पर रामा और भाना नामक
भीलों का अधिकार था, जिन्हें परास्त करके सिसोदिया शाखा के वंशधर चंद्रावतों ने अपना अधिकार जमाया।
कांठला प्रदेश
कांठला प्रदेश देवलिया प्रतापगढ़ पर पहले मीणों का राज्य था। संवतः 1617 में बीका सिसोदिया ने वहां के सरदार भाभरिया मेर को मारकर उसके राज्य पर अपना अधिकार किया था, भाभरिया मेर की पत्नी देउमीणी की चोटी आज भी प्रतापगढ़ के पहलों में मौजूद है, जिसकी हर साल नवरात्रि के अवसर पर धूमधाम से पूजा की जाती है। (वीर विनोद कविराजा श्यामलदास) इस संदर्भ में यहां यह जोड़ देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जयसमंद उदयपुर जिला से लेकर ठेठ प्रतापगढ़ चितौड़गढ़ जिला तक के क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी सदियों से स्वयं को मीणा कहते-कहलाते आ रहे हैं। ये लोग अपने सर नेम के लिए भी बहुधा मीणा या रावत शब्द प्रयुक्त करते हैं।
कोटा
कोटा पर शताब्दियों तक भीलों का शासन रहा। कोटा के पास आसलपुर की ध्वस्त नगरी तथा अकेलगढ़ का पुराना किला भीलों के ही थे। वहां के भील सरदार की उपाधि कोटिया थी। सन 1274 में बूंदी के तत्कालीन शासक समर सिंह के पुत्र जेतसिंह ने कोटिया भील को युद्ध में मार डाला और कोटा में हाड़ा वंश के शासन की जींव डाली। पुरानी परंपरा के अनुसार जेतसिंह ने कोटिया भील के नाम पर अपनी राजधानी का नाम कोटा रखा।
मनोहर थाना
झालावाड़ जिले के मनोहर थाना के आसपास के इलाके पर संवत् 1675 तक भील राजा चक्रसेन का राज्य था। कोटा के महाराव भीम सिंह ने राजा चक्रसेन को हराकर उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। कोटा राज्य का इतिहास (डॉ मथुरालाल शर्मा पृष्ठ संख्या 300) मीणा और भील जनजातियों में अनेक फिर्को या उपजातियां है। हर फिर्को अपनी जातिया के नाम के पहले एक खास विशेषण लगाकर अपना अलग अस्तित्व कायम रखे हुए हैं। जैसे पढि़यारमीना, पचवारा मीना, मालवीभील मांदलिया आदि-आदि।
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