अस्तित्व के संकट के साथ आदिवासियों को पहचान के संकट से भी आदिकाल से ही जूझते रहना पड़ा। थोड़ी देर सुविधा के लिये 'सनातनी' टर्मिनोलोजी का इस्तेमाल करें, तो सतयुग-त्रेता-द्वापरकार खंडों में इन आदिवासियों को असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, प्रेत न जाने क्या-क्या संज्ञाएं देकर मनुष्य जाति होने से नकारते रहने का दुष्चक्र रचा गया और इस कलियुग में उनकी आदिवासी पहचान (इंडिजीनस आइडेंटिटी) को नष्ट करने के लिये उन्हें 'जनजाति' या 'वनवासी' कहा जाकर उनके मौलिक स्वरूप को ही तिरोहित करने के बाकायदा सरकारी एलान किया जा रहा है। कुछ साल पहले विश्व स्तर पर ‘ईडिजीनस ईयर’ मनाया गया। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ को सीधे लिख दिया कि 'भारत में इंडिजीनस लोग' न होने के कारण ऐसा कोई वर्ष नहीं मनाया जायेगा और न ही कोई प्रतिनिधि मंडल वहाँ जायेगा। यही सरकारी रवैया 'डरबन सम्मेलन' में सरकार ने दलितों के प्रति अपनाया।
आदिवासियों पर किये जाते रहे अध्ययन-शोध की परम्परा का तनिक विश्लेषण करें, तो बात थोड़ी और स्पष्ट हो सकेगी। भारतीय आदिवासी समुदायों पर लेखन की शुरुआत औपनिवेशिक दौर में आरम्भ हो गई थी। ओरियंटलिस्ट ने उन्हें कौतूहल व हिकारत भरी नजरों से देखा, नृतत्वशास्त्रियों ने उनके प्रति समान्यीकृत औपचारिकता का दृष्टिकोण अपनाया, भाषाई अध्येता सतह से नीचे नहीं उतर पाये। जहाँ तक प्रगतिशील नजरिये का सवाल है, तो डीडी कौशाम्बी, डीपी चट्टोपाध्याय, भगवती शरण उपाध्याय एवं राहुल सांकृत्यायन जैसी विभूतियाँ ने आदिवासियों को समझने में गहरी दिलचस्पी ली, लेकिन कुल मिलाकर उनमें भी एक सतही व रोमानी नजरिया ही हावी होता जान पड़ता है। आगे दिये कुछ उदाहरणों से यह सिद्ध हो जायेगा कि वर्तमान में आदिवासियों को लेकर बड़े-बड़े विद्वान चिन्तित और चिन्तनशील दिखाई देते हैं, जिनमें डा. ब्रह्मदेव शर्मा, रामशरण जोशी कुमार सुरेश सिंह, जीएन देवी के अतिरिक्त और भी कई नाम लिये जा सकते हैं, फिर भी किसी ठोस वजह से एक बेचैनी वहीं की वहीं उसी मात्रा में बनी रहती है।
कुकुरमुत्तों की तरह ढेर सारे एनजीओज आदिवासी क्षेत्रों में नजर आयेंगे, मगर अधिकांश में ख्याति और स्वार्थसिद्धि का तत्व ही हावी है। इस सारी परम्परा में महाश्वेता देवी जैसे अपवाद है। वजह, आदिवासियों के पति उनकी सोच काफी सीमा तक विशिष्ट लगती है जिनमें बहुत कुछ कर सकने की तड़फड़ाहट है। आदिवासी विमर्श की नई पहल रमणिका गुप्ता जी ने की। उनका नाम केवल इसलिये मैं यहाँ नहीं ले रहा हुँ, प्रत्युत इस वजह से कि उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण बात लगातार कही है। वह यह है कि ‘साहित्य, संस्कृति, धर्म, परम्परा, इतिहास, समाज कोई भी क्षेत्र से सम्बन्धित आदिवासी अभिव्यक्ति का सवाल हो, नेतृत्व स्वयं आदिवासियों को अपने हाथ में लेना पड़ेगा और अन्य लोग कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ चलेंगे।’ सारी चिन्ताओं के रहते बात क्यों नहीं बन पा रही है? इस प्रश्न का समाधान शायद हमें रमणिका जी के उक्त विचार में मिल सके। इसीलिये उनकी यह बात मुझे महत्त्वपूर्ण लगती है।
प्रख्यात समाजशास्त्री श्री पूरनचंद जोशी जब ‘बौद्धिक वर्चस्वशाली परिप्रेक्ष्य से आदिवासी संस्कृति और ज्ञान के ‘एक्सक्लूजन’ (निष्कासन) पर गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हैं (कथादेश, अगस्त- 2002, में राजाराम भादू का लेख)’ तो इससे संकेत यही मिलता है कि पूर्वोक्त बौद्धिक परम्परा के दृष्टिकोण से आदिवासियों की सही तस्वीर खींचना मुश्किल है। इसलिये अहम सवाल आज भी ज्यों के त्यों सिर उठाये खड़े दिखते हैं-
आदिवासियों के समृद्ध सांस्कृतिक रिक्थ की मौलिकता को प्रगतिशील विकास के साथ संरक्षित कैसे रखा जाये?
विकास की प्रक्रिया के साथ उनके पुश्तैनी भौतिक-प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उन्हें कैसे मिले?
धर्म के नाम पर उनके सांप्रदायीकरण को कैसे रोका जाये?
साहित्य की उनकी मौखिक परम्परा को लिपिबद्ध कैसे किया जाए?
उत्थान के साथ उनकी स्वस्थ प्राकृतिक जीवन शैली को कैसे बचाये रखा जाये?
चौतरफा दबावों के कारण अब यह सम्भव ही नहीं कि समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ कर जैसी भी स्थितियाँ हैं, उनमें वे अपना जीवन जीते चले जायें। सवाल यह उठता है कि मुख्य धारा में लाने की प्रक्रिया में उन्हें दोयम दर्जे का जन समुदाय बनने के सम्भावित खतरे से कैसे टाला जाये?
अनुभव यह बताता है कि आदिवासियों में से जो भी व्यक्ति, परिवार या समूह शिक्षित, उन्नत और आधुनिक बनने लगता है वही अपनी मौलिक जीवन शैली और सोच को त्याग कर गैरआदिवासी जैसा व्यवहार करने लगता है। प्रश्न यहाँ सुविधाओं और साधनों का नहीं है, बल्कि समृद्ध परम्परा का है, उस परम्परा के संरक्षण का है। समान स्तर पर वह आधुनिकता की विकृतियों को भी अपनाने लगता है। यहाँ तक कि वह जानबूझकर अपनी संस्कृति और संस्कारों को भुलाने लगता है। उसे यह भी होश नहीं रहता कि यह उसकी विवेक सम्मत्त प्राथमिकता नहीं प्रत्युत अनाभासित मनोवैज्ञानिक दबाव है। प्रश्न यह है कि इसका विकल्प क्या हो?
अपने त्रासद अनुभव की वजह से जो आदिवासी समुह बाहरी दुनिया के प्रति अत्यन्त शत्रुवत (होस्टाइल) हैं, उन्हें जैसे ही विकास या उत्थान की ओर लाने के प्रयास किये जाते हैं तो वे अपने जीवन में आक्रामक हस्तक्षेप मानते हैं। प्रयास चालू रख गया तो एक असहनीय मानसिक दबाव अनुभव करने लगते हैं। यहाँ तक कि मरने लगते हैं। अंडमान के आदिवासियों (विशेषकर जारवा और सेंटेनेलीज) के साथ यह सब घटित हुआ है। अंतत: सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों को रोकना पड़ा और उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना पड़ा। इस विकट और अनूठी समस्या का समाधान क्या हो?
मैं यह महसूस करता हूँ कि इसके लिए नृतत्वशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और मनोविश्लेषकों का संयुक्त दल बनाया जाना चाहिये।
वैश्विक पूँजीवादजन्य व्यक्ति व स्वार्थ केन्द्रित माहौल में आदिवासी सामूहिक जीवन पद्धति को कैसे बचाया जाये?
भविष्य को बेहतर गढ़ने के लिये अतीत को समझना अनिवार्य होता है। अस्तित्व के संकट की तरह आदिवासियों के इतिहास को जान-बुझकर नजरअंदाज करते रहना भी अपने आप में बड़ी समस्या है। इस लम्बे इतिहास को लिपिबद्ध कैसे किया जाये? और यह काम कौन करेगा या कर सकता है?
कुछ सवालों के साथ यह पृष्ठभूमि देना इसलिये जरूरी समझा गया कि पहले हम आदिवासियों के प्रति अब तक जो दृष्टिकोण अपनाया गया है उसे भलीभाँति परख लें। इस दृष्टिकोण के चलते ईमानदारी और समझदारी के साथ आदिवासी इतिहास सम्भव नहीं। मुझे यहाँ विजयदेव नारायण साही की एक कविता की निम्न पंक्तियाँ काफी प्रासंगिक लगती हैं-
‘तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे
क्योंकि
हमने अपने को
इतिहास के विरुद्ध दे दिया है...’
ये पंक्तियाँ उन्होंने किसी भी संदर्भ में लिखी हों, आदिवासी परिप्रेक्ष्य में अर्थ स्पष्ट है, फिर भी अपने-अपने हिसाब से इन पंक्तियों को समझा जा सकता है। निष्कर्ष यही निकलेगा कि जिस इतिहास (व्यापक अर्थ में) के विरोध में आदिवासी युग-युगों से लड़ते रहे, उसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी।
आदिवासियों का वास्तविक इतिहास क्या था, उसकी खोज कैसे की जाय एवं उसे सामने कैसे लाया जाय? यह मूल प्रश्न अपनी जगह है। इसका उत्तर तलाशने से पूर्व हमें इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न से मुठभेड़ करनी होगी कि जैसा इतिहास हमें पढ़ाया-सुनाया जाता रहा है, उसमें आदिवासी किस रूप में है? इसे समझने के लिये हमें भारतीय मिथक परम्परा में जाना होगा, चूँकि सारी गड़बड़ी वहीं से शुरु हुई है। मिथक एवं इतिहास के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि हारी हुई कौमों को विकृत करके चित्रित किया जाता है, वर्चस्वकारी वर्ग के पक्ष में सारा सोच होता है और प्रायः इतिहासकार स्वयं की वर्ग-परम्परा के पक्ष में तथा विपक्ष (जिस भी स्वरूप और मात्रा में) के विरोध में कुछ न कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित होता है। ऐतिहासिक प्रमाण तो निरपेक्ष होते हैं, समस्या यह है कि वे सब मूक होते हैं। जब उनके अधिकांश की व्यवस्था-विश्लेषण-निष्कर्ष का मौका इतिहासकार को मिलता है तो प्रामाणिक सामग्री के अनुरूप उसका तटस्थ और निष्पक्ष हो पाना बहुत मुश्किल होता है। इतिहासकार के संस्कार, सोच, दृष्टि और विचारधारा प्रत्यक्ष-प्रोक्ष या जाने-अनजाने समाविष्ट होकर रचे जा रहे इतिहास को प्रभावित करने लगते हैं।
यह किसी के साथ भी हो सकता है। इस उलझन से बचने के लिये हमें ‘वाद-विवाद-संवाद’ की मेथडोलॉजी को अपनाना चाहिये जिसके माध्यम से विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखे और अनलिखे इतिहास का विश्लेषण करके उस निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिये जो बौद्धिक-तार्किक व तथ्यात्मक-वैज्ञानिक तुला पर खरा उतरे। पढ़ सुनकर लगे कि ‘हाँ, यह प्रामाणिक है, यह सच है, इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं।’ इतिहास की ऐसी प्रामाणिकता के सामने तथ्यात्मक यथार्थ बनाम मूल्यात्मक आग्रह की असुविधाजनक स्थिति भी पैदा नहीं होनी चाहिये। इतिहास को ‘क्या है’ के रूप में ही देखना चाहिये, न कि ‘क्या होना चाहिये’ के रूप में। ‘इतिहास के प्रति दृष्टिकोण’ पर यह संक्षिप्त चर्चा विषयांतर नहीं है। जब तक हम इसे न समझें, ‘इतिहास और आदिवासी’ विषय पूरी तरह हमारी समझ में नहीं आता। हाँ, तो इतिहास चर्चा से पाले हम मिथकों पर कुछ उदाहरणों के सहारे बात करें।
आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘मिथकों में आदिवासी’ के सारे संदर्भों को पुनर्व्याख्यायित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है, मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा। जहाँ तक मिथकों में आदिवासियों की विकृत प्रस्तुति का प्रश्न है हमें पुराणों के साथ ही रामायण और महाभारत में भी जाना होगा। पुराण ई.पू. की दूसरी सदी से सातवीं सदी के कालखंड में लिखे गये। इनके माध्यम से बुद्ध और महावीर द्वारा आरम्भ किए ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन से ध्वस्त पुरोहित वर्चस्व को पुन: स्थापित करने का प्रयास किया गया। ध्यातव्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। जैन ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि अंत में वे जैन मुनि बन गये (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खंड - 1, डा. रामविलास शर्मा - पृष्ठ 636)। यह तो सर्वविदित है ही कि सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म के प्रसार-प्रचार में जी-जान लगा दी। ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र अपने स्वामी मौर्य सम्राट बृहद्रथ का वध करके जब सम्राट बनते हैं, (ई.पू.184) तभी से ब्राह्मणवादी वर्चस्व पुन: स्थापित होता है जिसे गुप्त वंशीय राजाओं का भी भरपूर प्रश्रय मिला। यह सारा कालखंड ई.पू. दूसरी सदी से सातवीं सदी तक चलता है। इसी दौरान पुराण लिखे जाते हैं जिनमें चमत्कार, अतिशयोक्ति एवं मिथकों के माध्यम से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गौरवान्वित किया जाता है जो अनार्य-आदिवासी विरोधी रहती आई थी और आगे भी चलती है। पौराणिक मिथकों का कुछ अंश रामायण में और अधिकांश महाभारत के माध्यम से पहले ही प्रस्तुत हो चुका था।
रामायण के प्रमुख पात्र राम हैं, जिन्हें पुरुषोत्तम के रूप में अब तक सम्पूर्ण समाज पर स्थापित किया जाता रहा। अगर राम के जीवन में वे वनवास के चौदह वर्ष निकाल दिये जायें तो उनके व्यक्तित्व में क्या बचेगा? उन महत्त्वपूर्ण चौदह वर्षों में राम आदिवासियों के साथ रहे और उन्हीं की ताकत से अनार्यों (आदिवासियों के विशेष संदर्भ में) से युद्धोंपरांत विजयी होते हैं। इन सबके बावजूद राम की व्यवस्था में आदिवासी नायकों की भागीदारी, हस्तक्षेप एवं दर्जा क्या रहा? भद्रजन के लिये यह बड़ा ही असुविधाजनक प्रश्न होगा। निर्दोष शम्बूक के वध वे बावजूद राम महान रहेंगे। कितना रोचक होगा अगर हम ‘गुजरात के गोधराकांड - न्यूटन का सिद्धांत प्रायोजित नरसंहार’ के समीकरण की ही तरह सूपर्णखा-सीता अपहरण- लंकाकांड पर न्यूटन के सिद्धांत को लागू करके देखें। राम-रावण युद्ध में दोनों ही तरफ से मरने वाले आदिवासी तो अनार्य, और युद्ध किसके लिये? इससे भी आगे-आपके लिये जो मानव समुदाय शत्रुपक्ष था उसे मनुष्य न मानकर राक्षस, असुर, दैत्य, दानव न जाने किस-किस तरह विरूपित किया गया और जिन्होंने आपका साथ दिया उन्हें गिद्ध, रीछ, वानर आदि की संज्ञा देकर जंगली जानवरों की श्रेणी में रख दिया, ताकि भविष्य तक में कभी उनकी असली पहचान न हो सके?
महाभारत में चिरपरिचित एकलव्य का प्रसंग आता है। आर्यगुरु ने धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। निषादराजपुत्र से फिर भी उसको गुरु मानकर अपने बलबूते पर धनुर्धर बन जाने पर भी बतौर दक्षिणा अँगूठा काट कर दे दिया। कान पक गये यह कथा सुनते-सुनते। मेरे गले यह कथा इस रूप में कतई नहीं उतरती। तर्क सम्मत यह लगता है कि एकलव्य का अँगूठा जबरन काटा होगा। इस जघन्य अपराध को ढँकने के लिये तथाकथित दक्षिणा का स्वांग रचकर थोप दिया गया।
आदिवासी स्त्री हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का प्रसंग आता है। अर्जुन को बचाने के लिये उसे शहीद कर दिया जाता है। घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक का महत्त्वपूर्ण प्रसंग महाभारत में है। वह किशोरावस्था में ही था, मगर अत्यन्त बलवान। दुर्योधन कहीं से ढूँढ़कर उसे अपने पक्ष में लड़ने के लिए बुला लेता है। वह कौरवों की तरफ से लड़ता है। ध्यान देने की बात है कि महाभारत युद्ध में अधिकांश आदिवासी कौरवों के पक्ष में लड़े थे। एकलव्य स्वयं इसका उदाहरण है। उसका अँगूठा अगर द्रोणाचार्य माँगता तो शायद वह उसकी सेना के पक्ष में न लड़ता। अँगूठा काटने वाले पांडव थे, इसलिए वह पांडवों के विरुद्ध लड़ा था। हाँ, तो बर्बरीक की कथा यूँ चलती है कि जैसे ही वह युद्धभूमि में आया, तो कृष्ण समझ गये कि अब पांडवों का बचना मुश्किल है। क्या किया जाये? भोले किशोर बर्बरीक को सोलह कला प्रवीण भगवान छलने के लिये चल देते हैं। कहते हैं - ‘कलियुग में तेरी पूजा का इंतजाम किये देता हूँ। इस वक्त बैकुंठ (या स्वर्ग) धाम में भेजने की गारण्टी भी लेता हूँ। बस एक काम कर दे, लड़ मत और अपनी गर्दन मुझे सौंप दे।’
जवाब मिलता है, ‘आप तो भगवान हैं, जो करेंगे ठीक ही होगा। मेरी इतनी-सी इच्छा है कि दोनों ओर से बड़े-बड़े धुरंधर लड़ रहे हैं, मैं इनकी बहादुरी देखना चाहता हूँ।’
शर्त मान ली जाती है। बर्बरीक गर्दन सौंप देता है। एक मत के अनुसार कुरुक्षेत्र के मैदान के निकट लम्बे बांस पर बर्बरीक का शीश टाँग दिया जाता है, जहाँ से उसने सारा युद्ध देखा। दूसरे मत के अनुसार कुरुक्षेत्र के निकट सबसे ऊँची पहाड़ी चोटी पर शीश रख दिया जाता है। यह पहाड़ सीकर (राजस्थान) के निकट हर्ष पर्वत है, जिसकी ऊँचाई 3300 फीट है। माउंट आबू के गुरु शिखर (करीब 6000 फीट) के बाद राजस्थान, हरियाणा, निकटवर्ती उत्तर प्रदेश, पंजाब के अंचल में यही सबसे ऊँचा पहाड़ है। हर्ष पर्वत और रींगस के बीच खाटूश्याम जी का धर्मस्थल है, जिसमें केवल शीश वाली प्रतिमा है, जिसकी पूजा होती है। इसे ‘श्याम बाबा’ कहते हैं। शीश मूर्ति से लगता है यह बर्बरीक ही होगा। हर्ष पर्वत के शिखर से ही उसने महाभारत युद्ध देखा। हम प्रसंग को यहीं रोकते हैं और देखते हैं कि खाटूश्याम जी में मूर्ति तो बर्बरीक की है लेकिन मान्यता यह चली आ रही है कि यह श्री कृष्ण का बाल रूप है और उसी की पूजा होती है। सालाना लख्खी मेला यहाँ लगता है। विडम्बना यह है कि शीश काटकर देने के बाद भी आदिवासी बर्बरीक की जगह कृष्ण को पूजा गया।
एक और प्रसंग है महाभारत में। अश्वमेधी यज्ञ के घोड़े की यात्रा के दौरान अर्जुन की लड़ाई बभ्रूवाहन से होती है। यह स्थान पूर्वांचल में है। बभ्रूवाहन मणिपुर के आदिवासी राजा चित्रवाहन की राजकुमारी चित्रांगदा का पुत्र था। उल्लेखनीय है अर्जुन ने चित्रांगदा और नागकन्या उलूपी (दोनों आदिवासी) से विवाह किया था। लड़ाई में अर्जुन मारा जाता है (बेहोश हुआ होगा) और उलूपी जड़ी बूटियों से उसे जीवित करती है। प्रश्न यह है कि अर्जुन को धूल चटा देने वाला शूरवीर बभ्रूवाहन महान नहीं माना जाकर अतुलनीय योद्धा अर्जुन को ही बताया जाता है।
कृष्ण का वध जारा शबर नामक आदिवासी के हाथों होता है। मैंने वध स्थल (गुजरात) की यात्रा की है। घटना स्थल की परख की। किसी भी कोण से देखें, यह सम्भव ही नहीं कि हरिण की आँख समझ कर पगतल में चमकते पद्म चिह्न पर निशाना साधा हो। अगर आखेट था तो शबर का बाण जहरीला नहीं हो सकता। और बाण जहरीला नहीं था, तो पैर में बाण लगने से कम-से-कम तत्काल तो मृत्यु नहीं हो सकती। इसके लिये पूरे शरीर का ‘सेप्टिक’ होना जरूरी होगा। वह भी तब, जबकि कोई उपचार न किया जाये। आप कहते रहिये अगले जन्म में बाली के हाथों मरने का वरदान राम ने दिया था। और जारा शबर ही त्रेतायुग का बाली था। सारे संदर्भ देखने पड़ेंगे। खाण्डव वन दहन में आदिवासी नाग जाति को भस्म करने में कृष्णा एवं अर्जुन द्वारा अग्नि का सहयोग करने से लेकर कंस-शिशुपाल-जयद्रथ वध, एकलव्य का ‘अँगूठा’, घटोत्कच - बर्बरीक - बभ्रूवाहन प्रसंग तक। यही नहीं, जाना होगा सतयुग और त्रेतायुग में भी।
आप भीलों की मौखिक और गेय परम्परा का महाभारत (‘भीलों का भारथ द्वारा भी’ भगवानदास पटेल) पढ़ जाइये। पात्र एवं घटना स्थल करीब-करीब वहीं हैं लेकिन कथा और संदर्भ बदले हुए पायेंगे। वहाँ अर्जुन की जगह नागवंशी आदिवासी राजा वासुकी अतुलनीय योद्धा और बलवान मिलेगा। श्री पटेल भीलों की रामायण भी लिख रहे हैं। उनका यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है आदिवासियों की दृष्टि से भारतीय मिथकों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में।
पूरा का पूरा तथाकथित सतयुग भरा पड़ा है मिथकों से और मिथकों में आदिवासियों के विकृतिकरण से।
इन्द्र का संदर्भ ले लीजिये। छल-छद्म, अय्याश, व्यभिचार, यहाँ तक कि बलात्कार (कानूनी परिभाषा और अहल्या प्रसंग) क्या-क्या कुकर्म उसने नहीं किये और मनुष्य में श्रेष्ठ देवता और देवताओं के स्वामी (श्रेष्ठतम) इन्द्र की पूजा आप करते रहिये। नारद, तुम्बरु जैसे पात्र अनार्य आदिवासी थे। नारद के चरित्र को समझिये। इन्द्र की व्यवस्था के विरोध में हर जगह व्यंग्य करता है। उसके कथनों की मूल भावना और उद्देश्यों को समझने के लिये दिमाग पर अधिक जोर देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। क्या है ये ‘महान’ चंद्रवंशी और सूर्यवंशी क्षत्रिय? इन्हीं के समर्थन में लिखे गये शास्त्रों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पुरूरवा की अप्सरा (वेश्या) पत्नी उर्वशी की औलाद की पीढियाँ सूर्यवंशी हुए। यह पूछना बड़ा ही असुविधाजनक होगा कि ‘तुम्हारी (दोनों वंशों की) आद्यजननी तो...थीं, फिर तुम महान कुल परम्परा के कैसे हुए?’ दूसरी तरफ यह सवाल उठता है कि प्राचीन काल में अपनी पुश्तैनी धरती पर शान्ति से जीवन जी रहे आदिम समुदायों पर आपने बाहर से आकर हमले किये, उन्हें मारा, दास बनाया, भगाया और फिर असुर, राक्षस, जंगली जानवरों की संज्ञा दी। फिर तुम श्रेष्ठ कैसे हुए?
आदिवासी इतिहास लिखने से पहले हमें ‘मिथकों में आदिवासी’ के सारे संदर्भों को पुनर्व्याख्यायित करना होगा। आस्था और भावना अपनी जगह है, मगर अतीत का निरूपण तो तथ्यात्मक, तार्किक, बौद्धिक व वैज्ञानिक ही होगा।
अब बात आती है इतिहास में आदिवासियों की। इससे पहले यह देखा जाये कि इतिहास में आम आदमी किस हद तक होता है? इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों तक राजा-महराजाओं का इतिहास ही लिखा जाता रहा। प्राचीन काल से मुगलकाल तक भाट-चारणी-दरबारी इतिहासकारों की परम्परा हावी रही। इसमें प्राचीन सम्राटों, तथाकथित गणराज्यों के शासकों, मुस्लिम बादशाहों, रियासती सामंतों के पक्ष में इतिहास लिखा व लिखवाया जाता रहा। अंग्रेज इतिहासकारों की मानसिकता पूरे भारत देश की परम्परा को हेय दृष्टि से देखने की ही रही। उपनिवेशवाद के दौर में यह सम सम्भव ही नहीं हो सकता था कि इतिहास में आम आदमी को जगह मिले। आजादी के बाद इस क्षेत्र में निस्संदेह महत्त्वपूर्ण कार्य वामपंथी इतिहासकारों ने किया। किसानों व श्रमिकों के आंदोलनों, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों, वर्गसंघर्ष की परम्परा आदि को उजागर करने का प्रयास हुआ। लेकिन वामपंथी विचारधारा के सिद्धांत उन पर इस कदर हावी रहे कि वे देश की परम्पराओं के, समस्याओं के समाधान के सारे सूत्र (ऐतिहासिक दृष्टि से) अंतरराष्ट्रीय सामंतवाद में ही ढूँढ़ते रहे। हर प्रश्न का उत्तर मार्क्स, ऐंजिल्स, लेनिन, माओं के विश्लेषण में तलाशते रहे। उदाहरणार्थ, भारत में जाति व्यवस्था के यथार्थ को नजरअंदाज करते रहे।
आजादी की लड़ाई के दौरान बाबा साहेब अंबेडकर के नेतृत्व में समाज का दलित वर्ग ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध मोर्चा थामे आगे बढ़ रहा था तो उन्होंने वामपंथियों के साथ आने का आग्रह किया। इस पर स्वयं ईएमएस नाम्बूदरीपाद ने कहा कि ‘दलितों के पचड़े में अभी नहीं पड़ना है। साम्राज्यवाद पर विजय प्राप्त करने के बाद दलितों की समस्या अपने आप हल हो जायेगी।’ यही वजह रही कि सर्वहारा के पक्ष में चिन्तित चिन्तनशील वामपंथियों को दलितों ने अब तक स्वीकार नहीं किया है। वर्तमान दौर में तो इतिहासकार खुले आम कर ही रहे हैं और इस मुहिम में वे ब्राह्मणवादी वर्चस्व को पुन: स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। इतिहासकारों की ऐसी परम्परा व मानसिकता के चलते इतिहास में आदिवासी कहाँ मिलेंगे।
आदिवासियों से जुड़ी एवं बड़ी एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र मैं करना चाहूँगा। राजस्थान के बांसवाडा जिले में गुजरात सीमा पर एक जगह है मानगढ़ का पहाड़। अंग्रेजों और रियासती सामंतों के मिले-जुले शोषण के शिकार आदिवासी लोग 17 नवम्बर, 1913 के दिन वहाँ एकत्रित हुए। बनजारा जाति के आदिवासी गोविन्द गुरु की अगुवाई में उपनिवेशवादी-सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध यह आदिवासियों के द्वारा देश की आजादी की लड़ाई का हिस्सा था। करीब 15-20 हजार आदिवासी वहाँ एकत्रित हुए। बेगार प्रथा, वन सम्पदा के उपयोग पर पाबन्दी एवं भारी लगान के विरोध में यह सभा आयोजित की गई। ब्रिटिश कमांडेन्ट जेपी स्टीक्ले के नेतृत्व में जाट रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट और मेवाड़ भील कोर की चार फौजी कम्पनियों के हथियार बंद लवाजमेें ने उन आदिवासियों पर अचानक धावा बोला। बंदूकों मशीनगनों की गोलियों से उन्हें भून डाला। डेढ़ हजार आदिवासी शहीद हुए। गोविन्द गुरु के साथ सैकड़ों आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया। यह तिथि माघशीर्ष पूर्णिमा थी। हर साल इस दिन वहाँ आदिवासियों का विशाल मेला लगता है।
इस घटना में जलियावाला बाग कांड से चार गुना संख्या में आदिवासी शहीद हुए थे। भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में इस घटना का कहीं जिक्र नहीं है। अंग्रेजों ने तो खैर इस घटना को अपने हिसाब से दबा देने का षडयंत्र रचा ही, हमारे धुरंधर इतिहासकार भी सोते रहे। इतिहास की दृष्टि से यह घटना इतनी पुरानी नहीं है कि प्रमाण न जुटाये जा सके। मैंने स्वयं घटना स्थल और क्षेत्र का दौरा किया। कुछ दस्तावेज भी इधर-उधर से जुटाये। इस घटना में तनिक भी संदेह नहीं। स्थानीय आदिवासी नेताओं ने पिछले कुछ अर्से से आवाज उठाई। 15 अगस्त, 2001 को ‘दैनिक भास्कर’ अखबार में मेरा सम्पादकीय इस विषय पर छपा था। ‘पहल’ - 71 पत्रिका में विस्तृत यात्रा-वृतांत के रूप में इस घटना को मैंने उजागर किया। यहाँ मैं मेरी बात नहीं कह रहा हूँ, अंचल के आदिवासी जागरूक थे। शहीद स्थल के रूप में मानगढ़ के विकास की योजना बनी। शहीद स्मारक का शिलान्यास राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमन्त्री महोदय ने 27 मई, 1999 को कर दिया। उसी दिन सवा करोड़ की राशि खर्च करने की घोषणा भी की थी। अगस्त, 2002 के पहले सप्ताह में भारत सरकार ने दो करोड़ तेईस लाख की राशि और स्वीकृत कर दी है और यह मान लिया है कि पहला जलियावाला कांड मानगढ़ में हुआ था। आश्चर्य है कि करीब एक सदी तक यह घटना इतिहास का हिस्सा न बन पाई जिसमें से आधी सदी आजाद भारत के खाते में है। चुल्लूभर पानी में डूब कर मर जाना चाहिये हमारे महान इतिहासकारों को! कम-से-कम शर्म आनी चाहिये और राष्ट्र से क्षमा माँगनी चाहिये कि वे इतिहासकार के रूप में कितने नाकारा साबित हुए...।
एक और ऐसी ही घटना मानगढ़ से थोड़ी दूर गुजरात की विजयनगर रियासत (अब तहसील) के गाँव पालचित्तरिया में घटी थी। मानगढ़ की ही तरह 7 मार्च, 1992 के दिन में 1200 आदिवासी शहीद हुए थे। ‘इंडिया टुडे’ की एक टीम वहाँ गई। कुछ लोग जिन्दा हैं जो घटना के चश्मदीद गवाह हैं, उनसे भी बातें की। ‘इंडिया टुडे’ के 3 सितम्बर, 1997 के अंक में उदय माहूरकर की रपट इस सम्बन्ध में छपी। बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिचेता को बहुत अर्से बाद स्वीकार किया गया।
आदिवासी अंचलों में ऐसी एकाध नहीं, वरन सैंकड़ों घटनाएँ हुई हैँ। अतीत से लेकर आजतक का आदिवासी इतिहास संघर्ष का सिलसिला रहा है जिसे जाने-अनजाने भुलाया जाता रहा।
इतिहास के तथ्यों को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है, इसका उदाहरण देखिए। महाराणा प्रताप के अत्यन्त विश्वसनीय और योद्धा सेनापति राणा पूंजा थे। वे भील थे। भीलूराजा भी उन्हें कहा जाता रहा है। राजीव गाँधी जब प्रधानमन्त्री थे, तो राणा पूंजा की प्रतिमा का उदयपुर में उन्होंने अनावरण किया। हिरणमगरी (पहाड़ी) जहाँ राणा प्रताप की प्रतिमा है, उसी से कुछ दूरी पर राणा पूंजा की प्रतिमा स्थापित की गई। यह सर्वविदित है कि राणा प्रताप के साथ लड़ने वाले राजपूत अत्यल्प थे और आदिवासी ही प्रमुख रूप से लड़े थे। कुछ लोगों ने एक कुचक्र रचा। चमचे किंश्म के इतिहासकारों की एक कमेटी बनाई। उनसे यह साबित करवाया गया कि राणा पूंजा आदिवासी न होकर राजपूत थे। उनके हिसाब से योद्धा केवल राजपूत होते हैं और सब टुटपुंजिये हैं। अगर इस साजिश का विरोध न हुआ तो सम्भव है एक न एक दिन ऐसे लोग अपने प्रयासों में सफल हो जायें और राणा प्रताप के साथ लड़े आदिवासियों के बलिदान को पूरी तरह भुला दिया जाये।
इतिहास से सम्बन्धित एक और अत्यंत गम्भीर बात है - आदिवासियों का अपराधी के रूप में समाज के सामने प्रस्तुतिकरण। यह षडयंत्र अंग्रेजों और देशी सामंतों का मिला-जुला प्रयास था। आदिवासियों की सत्ता और संसाधन छीन लिये जाने पर वे विद्रोही बन गये। राज्य शक्ति के साथ उन्हें कानून की ताकत से दबाने का दुष्चक्र रचा गया। सन् 1871 में ‘क्रिमिनल ट्राइब ऐक्ट’ सबसे पहले बॉम्बे प्रेसीडेंसी में लागू किया गया, बाद में एक-एक कर अन्य क्षेत्रों में। यद्यपि आजादी के बाद यह कानून समाप्त कर दिया और इसकी जगह ‘आदतन अपराधी अधिनियम’ बना दिया गया, जो समूह आधारित न होकर व्यक्ति आधारित है। सवाल यह है कि ऐतिहासिक प्रमाण कहीं सिद्ध नहीं करते कि आदिवासी अपराधी रहे हैं, लेकिन गैर आदिवासी समाज का अधिकांश सवर्ण तबका उस षडयंत्र की वजह से अब तक आदिवासियों के प्रति वही मानसिकता अपनाये हुए है।
आश्चर्य होगा यह जानकर कि राजस्थान स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं की सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में अभी भी मीणों, भीलों एवं अन्य आदिवासियों का परिचय यह कह कर दिया जाता है कि ‘इनका मुख्य धंधा चोरी, लूट, डकैती रहा है।’ कंजर, सांसी, बावरिया, कालबेलिया, पारधी, बेडिया जैसे आदिम समूहों को पुलिस चैन से नहीं बैठने देती। इस दौर में यह समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण आदिवासियों के प्रति अंग्रेज कालीन व्यवस्था (जो कि अब इतिहास है) और देसी सामंतवाद की उपज है। उस इतिहास को पढ़कर यह समाजशास्त्रीय धारणा बनती है, जिसका विरोध आदिवासियों एवं कुछ अन्य व्यक्तियों एवं संगठनों के अलावा आम बुद्धिजीवी क्यों नहीं करता? आश्चर्य तो यह है कि ऐसी पुस्तकों के ऐसे घोर आपत्तिजनक (आब्जेक्शनेबल) अंशों की ओर सरकार व प्रशासन का ध्यान भी क्यों नहीं जाता? ऐसे लेखकों और प्रशासकों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की जाती?
ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि किस प्रकार प्रायोजित-प्रायोजित या जाने-अनजाने आदिवासियों से सम्बन्धित महान घटनाओं व राष्ट्र के लिये उनके त्याग व बलिदान को इतिहास से बाहर रखा गया। इसके साथ उन्हें बदनाम भी किया जाता रहा।
अहम सवाल उठता है कि आदिवासियों के इतिहास को सामने कैसे लाया जाये? इतिहास की खोज और लेखन का महत्त्वपूर्ण काम सम्भव कैसे हो? किसी बात को कहने के लिये यदि व्यक्तिगत अनुभव और जानकारी का इस्तेमाल किया जाये तो मैं समझता हूँ, अधिक सहज और आधिकारिक होगा।
जयपुर के निकट बस्सी निवासी श्री झूंथालाल नाढंला (मीणा आदिवासी) ने वर्षों मेहनत करके सन 1968 में ‘मीणा इतिहास’ छपवाया। बहुत सारी सामग्री एकत्रित की। जागा-पोथियों का अध्ययन, जागाओं की पंचायत, स्थलों का भ्रमण, पुराने दस्तावेजों की परख, मौखिक परम्परा आदि का अध्ययन करके यह सामग्री बटोरी। इतिहासकार रावत सारस्वत से यह इतिहास लिखवाया। इतिहास की पूरी पुस्तक को पढ़कर लगता है कि मीणा इतिहास के हर पृष्ठ पर स्वयं रावत सारस्वत कहीं न कहीं हस्तक्षेप करते हुए दिखाई देते हैं। उनके माध्यम से उनके अपने ब्राह्मणवादी संस्कार, पूर्वाग्रह, सोच, दृष्टि आदि झलकती दिखती है। बड़ा काम हुआ। मगर ईमानदारी से काम नहीं हो पाया।
देश के अंचल-अंचल में आदिवासी बिखरे हुए हैं लेकिन धर्म, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक जीवन, स्वभाव, बाहरी दबाव, शोषण, शोषण का प्रतिरोध और अस्मिता के लिये निरन्तर संघर्ष आदि ऐसे तत्व हैं जो हर आदिवासी समुदाय को आपस में एक सूत्र में बाँधे हुए हैं। इससे पहले मुनि सागर (मीणा परिवार में जन्मे और बाद में जैन मुनि बन गये थे) ने मीणा आदिवासियों पर गहन अध्ययन किया। मीणों के प्राचीन राज्य, राजवंश, गोत्र आदि पर महत्त्वपूर्ण सामग्री बटोरी। मीणों की उत्पत्ति की खोज की। टोटम के रूप में 'मीन' (मत्स्य) के आधार पर मीना, मीणा, मारण आदि संज्ञाओं की व्याख्या की। 'मीन पुराण भूमिका' और 'मीन पुराण’ के रूप में महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे। उन्हें किसी ने कह दिया - 'काशी में विद्वान पंडित रहते हैं, उनमें से किसी को बुलवाओ और उनकी सलाह लेकर इन सबको अंतिम स्वरूप दो।' काशी के दो पंडित के चक्कर में वे पड़ गये और अधिकांश सामग्री के अर्थ का अनर्थ कर दिया। उदाहरणार्थ 'मीन' को टोटम से बदलकर विष्णु के मत्स्याअवतार से जोड़ दिया और यह निष्कर्ष निकलवा दिया कि मीणा लोग आर्यों से सम्बन्ध रखते हैं और क्षत्रिय हैं। वर्णाश्रमी व्यवस्था मीणा आदिवासियों से नहीं मिलती। उनके रीति-रिवाज, मौखिक परम्परा, संस्कृति, धर्म, संघर्ष गाथाएँ, प्रकृति से जुड़ाव, पंचायत व्यवस्था सब कुछ आदिवासी है, मगर केवल एक शब्द 'मीन' (मत्स्य) की गलत व्याख्या करने से सब कुछ गुड़-गोबर हो गया। अभी भी कुछ लोग इस गलतफहमी के शिकार हैं।
प्रतिष्ठित इतिहासकारों का आदिवासियों के प्रति रवैया काफी हद तक हमने इस लेख के पूर्वोक्त हिस्सों में देख लिया। अब भी क्या आदिवासी लोग इंतजार करेंगे और उन्हीं की ओर झाँकते रहेंगे कि वे ही आदिवासियों का इतिहास लिखने के लिये अधिकृत और सक्षम है? जब यह सिद्ध हो चुका कि आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य तुलनात्मक दृष्टि से किसी और साहित्य से कम नहीं है, प्रत्युत आदिवासी विषय-वस्तु के परिप्रेक्ष्य में तो उससे अधिक गुणात्मक व आधिकारिक है, तो आदिवासी ही आदिवासियों का इतिहास क्यों न लिखें? इन प्रश्नों का सीधे-सीधे 'हाँ' या 'ना' में उत्तर देना कुछ उलझन पैदा कर सकता है। उचित यह होगा कि जागरूक और बुद्धिजीवी आदिवासी लोग एवं आदिवासी समाज को लेकर प्रतिबद्ध गैर आदिवासी प्रबुद्धजन दायित्वबोध के साथ गम्भीर होकर इस मुद्दे पर विचार करें। साथ ही, अपने-अपने स्तर पर या टीम बनाकर इस काम में जुट जायें और कुछ सार्थक करके बतलायें। इतिहासकारों ने अब तक जो भूल की है उसका पश्चाताप करें और इतिहास में से जो महत्त्वपूर्ण छूट गया है, उसे जोड़ने का मूल्यवान काम तुरन्त हाथ में ले लें।
इतिहास लिखने/लिखवाने या उसे प्रकाशित करवाने की समस्या इतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी चुनौती इतिहास को खोजने की है। इसके लिये निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते हैं:
1. आदिवासियों से सम्बन्धित भारतीय मिथकों की पुनर्व्याख्या की जाये।
2. प्राचीन शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पट्टे, परवाने तथा अन्य लिपिबद्ध प्रमाण एकत्र किए जायें जो किसी भी प्रकार आदिवासियों से सम्बन्ध रखते हों।
3. प्राचीन हस्तलिखित पोथियाँ, पीढ़ियाँ, वंशावलियाँ और स्फुट बातें संकलित की जायें जिनमें आदिवासियों का उल्लेख हो।
4. शास्त्रों, ग्रंथों, महाकाव्यों में जहाँ आदिवासियों के संदर्भ आये हैं, उनकी सही व्याख्या हो।
5. प्राचीन गढ़, किले, मंदिर, देवले, बावड़ी, तालाब, कुएँ, हथाई तथा अन्य ऐसी इमारतों के बारे में जानकारी जिनका ताल्लुक आदिवासियों से रहा हो।
6. आदिवासियों के बारे में जागाओं, भाटों, गायकों द्वारा कही जाती रही बातों का संकलन।
7. राणाओं तथा अन्य याचकों द्वारा गाये जाने वाले गीत, कवित्त, दोहा एवं कहावतों का अध्ययन।
8. आदिवासी समाज में प्रचलित लोकगीत, लोकगाथाओं आदि में जो संदर्भ आये, उनका संकलन।
9. आदिवासी उत्सव, मेलों, खेल, प्रतियोगिताओं, शौर्यगाथाओं, मुहावरों, पहेलियों से निकलने वाली ऐतिहासिक महत्त्व की बातों का संकलन।
10. आदिवासी समाज में प्रचलित जन्म, विवाह, मृत्यु, श्राद्ध, पितर, लोकदेवता, टोटम आदि से सम्बन्धित परम्पराओं का अध्ययन।
11. आदिवासियों की जीवन शैली एवं जीवन दर्शन के विविध आयामों का वैज्ञानिक-तार्किक विश्लेषण जो एक परम्परा का भान कराता है।
12. अंधविश्वासों एवं कुरीतियों के पीछे वास्तविक कारणों की खोज।
13. आदिवासियों की पंचायती परम्परा, स्वशासन पद्धति, सामाजार्थिक जीवन आदि की जानकारी जो परम्परा के सूत्र बताती हों।
14. आदिवासियों का अतीत उथल-पुथल भरा है। आक्रमण, विरोध, हार-जीत, एक स्थान से दूसरे स्थलों की ओर पलायन आदि आदि। ऐसे किस्से बड़े-बूढों की जुबान पर अब भी हैं। इनका संकलन और विश्लेषण।
देश के अंचल-अंचल में आदिवासी बिखरे हुए हैं लेकिन धर्म, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक जीवन, स्वभाव, बाहरी दबाव, शोषण, शोषण का प्रतिरोध और अस्मिता के लिये निरन्तर संघर्ष आदि ऐसे तत्व हैं जो हर आदिवासी समुदाय को आपस में एक सूत्र में बाँधे हुए हैं।
अब देखिये ना, जब बिरसा मुंडा झारखंड अंचल में आदिवासियों को संगठित कर जागरूक का रहे थे और अंग्रेजों एवं देशी शासकों के विरुद्ध लड़ रहे थे, उसी दौर में गोविंद गुरू के नेतृत्व में आदिवासी राजस्थान व गुजरात में अंग्रेजों और रियासती व्यवस्था से लोहा ले रहे थे। देखने की बात यह है कि उनके बीच कोई संवाद-संप्रेषण नहीं था फिर भी लड़ाई एक ही दौर में एक-सी शैली में हुई। भाषा का क्या, भाषा-बोली तो हर बारह कोस पर बदलती जाती है। फिर भी कुछ शब्द होते हैं जो पुरानी पहचान कराते रहते हैं। उदाहरणार्थ, 'जोहार' ऐसा शब्द है जो अभिवादन के लिए हर अंचल में इस्तेमाल किया जाता है। फर्क इतना-सा ही मिलेगा कि झारखंड में 'जोहार' है तो राजस्थान में 'जुहार'। देश के किसी भी क्षेत्र के सामूहिक आदिवासी आयोजन को देख लें, नजारा एक-सा मिलेगा। वाद्ययंत्रों की बनावट व सुर और गीतों की धुन में समानता मिलेगी। प्रकृति प्रेम और मानव स्वभाव सभी आदिवासी समूहों में एक समान मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी अंचल के आदिवासी हों, उनका अतीत एक जैसा रहा है। और जब एक जैसा अतीत रहा है, तो उनका एक इतिहास भी सामने आना चाहिये। ऐतिहासिक सामग्री व्यापक स्तर के साथ आंचलित स्तर पर भी एकत्रित करनी होगी।
इस प्रक्रिया में कुछ सीमा तक सम्भव है, आंचलिक झलकियाँ-झांकियाँ देखने को मिले। उनको भी एक सूत्र में पिरोना होगा। यह सब करने से ही इतिहास में आदिवासियों को पहचान मिल पायेगी, अन्यथा नहीं।
0 comments:
Post a Comment